रोहतक जिले में ग्रामीण अधिवासों की सामाजिक जीवन एंव आहार व्यवहार का एक अध्ययन
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Abstract
किसी भी निश्चित भू-भाग में रहने वाले वे मानव समूदाय जिनमें पारस्परिक सहयोग व सदभाव रहता हो और वे मिलकर विकास के रास्ते पर चलते हो, समाज कहलाता है। व्यक्ति का अस्तित्व समाज से है और व्यक्ति समाज की एक मूल इकाई है व्यक्ति व समाज का पारस्परिक आपसी संबंध है। मनुष्य के कार्य समाज की सामाजिक सरंचना को प्रभावित करते है इसीलिए व्यक्ति के सुखी जीवन के लिए समाज में कुछ नियम बनाए गए है मनुष्य को उनका पालन करना ही पड़ता है तो भी मनुष्य के कार्य दीर्घकालिक या तात्कालिक आधार पर परिवर्तन का कारण बनते है। समाज के लोगों के साथ रहने से ही सामाजिक आकारिकी की स्थिति बनती है। गाँवों की सामाजिक आकारिकी से अभिप्राय गाँव के अलग- अलग भागांे में सामाजिक वर्गो के रहने या बसाव से है कुछ तरह के विशिष्ट गाँव एक ही सामाजिक वर्ग या एक ही जाति के लोगों द्वारा ही बसे हुए हो सकते है। परंतु अत्यधिक गाँवों में एक से अधिक सामाजिक वर्ग या जाति के लोग रहते है। इसमें कुछ प्रमुख जातियों के ज्यादा आवास हो सकते है तथा कुछ जातियों के कम आवास हो सकते है। भारत के गाँवों आज भी भारतीय सस्ंकृति के वास्तविक स्वरूप या स्थिति को देखा जा सकता है यहाँ सामाजिक परंपराये, प्रथायें तथा श्रम विभाजन आज भी कुछ साधारण परिवर्तनों तथा संसाधनों के साथ विधमान है। ग्रामीण भारत मुख्यतः चार सामाजिक वर्गों - भूस्वामी या कृषक, शिल्पकार, सेवी जातियाँ और भूमिहीन खेती मजदूर में बँटा हुआ है। आजादी के बाद शिक्षा के प्रसार, नगरों के विकास तथा अन्य विकासात्मक कारकों के प्रभाव से यधपि व्यवसायों पर जातीय नियंत्रण में कमी एंव शिथिलता दिखाई देती है। किंतु अलग-अलग जातियों के द्वारा आज भी परंपरागत व्यवसाय अपनाये जाते है। और ये व्यवसाय भी देश के विभिन्न हिस्सांे में अलग-अलग जातियों द्वारा किए जाते है इनमें उतर व दक्षिण भारत में भी अतंर दिखाई पड़ता है। कुछ राज्यों में शिक्षा के प्रसार के कारण इनमें कमी अवश्य देखी गई है।
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